गलवान के दो साल बाद चीन ने बदली रणनीति, अब तिब्‍बत के युवाओं को सेना में कर रहा भर्ती

गलवान में भारतीय सेना के साथ हिंसक मुठभेड़ के दो साल बाद, चीन अब एलएसी के साथ बुनियादी ढांचे का विस्तार करते हुए रिकॉर्ड संख्या में तिब्बतियों को सेना में भर्ती कर रहा है। चीनी राज्य मीडिया के अनुसार, तिब्बत के लोग भी पीएलए में भर्ती के लिए आवेदन करने से खुश हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक ल्हासा में पिछले साल की तुलना में इस साल पीएलए में 15.7 फीसदी अधिक तिब्बतियों को शामिल किया गया है। पीएलए ने वर्ष की पहली छमाही के दौरान 472 तिब्बती युवाओं की भर्ती की। इनमें 240 विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र हैं।

चीन में 6 से 9 साल के बीच के तिब्बती बच्चों को सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए विशेष स्कूल खोले जा रहे हैं। एलएसी के आसपास के मॉडल गांव में इन तिब्बतियों के लिए कई ऐसी प्रणालियां भी लागू की गई हैं ताकि वे यहां न सिर्फ बस जाएं बल्कि पीएलए में शामिल हो जाएं और चीनी सेना की ताकत बन जाएं। चीन को लगता है कि तिब्बतियों को अपनी सेना में भर्ती करने से देश को तिब्बत को एकजुट करने में मदद मिलेगी। ये सैनिक एलएसी के पास बेहतर तरीके से खड़े हो सकते हैं।

द प्रिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के साथ तनाव के बीच चीनी सेना को पिछले दो साल से ज्यादा समय तक लद्दाख में रहना पड़ा है. ठंड के कारण चीन की नियमित सेना के कई सैनिक कमजोर नजर आए, जबकि तिब्बत के युवा इन परिस्थितियों में मजबूत साबित हुए।

भारत के साथ टकराव के बाद चीन ने अधिक से अधिक तिब्बती सैनिकों को पीएलए में शामिल करने की रणनीति अपनाई है। इसके लिए एलएसी के पास निंची में स्कूली बच्चों के लिए समर कैंप के बहाने सेना को लाया गया है. इन कैंपों में 8 से 16 साल की उम्र के बच्चों को मिलिट्री स्टाइल का प्रशिक्षण मिलता है, ताकि वे आसानी से पीएलए में शामिल हो सकें।

चीन ने तैयार की मीमांग चेटन यूनिट

दूसरी ओर, सिक्किम तिब्बत में यादोंग और उसके आसपास के गांवों में बेरोजगार युवाओं को नौकरी का वादा कर अपना मिलिशिया समूह तैयार कर रहा है। उन्हें सीमावर्ती क्षेत्रों में तैनात किया जाता है जहां से व्यापार होता है। चीन ने तिब्बती सेना की विशेष इकाई तैयार की है। इसे मिमांग चेटन कहा जाता है।

तिब्बती भाषा में इसका अर्थ जनता से है। उन्हें चौकी पर जासूसी और निगरानी करके भारतीय सेना की गतिविधियों पर नजर रखने का काम सौंपा गया है। उन्हें न तो पद दिया गया है और न ही वर्दी। लेकिन तिब्बत पर चीन के कब्जे के 70 साल बाद भी तिब्बती असंतोष खत्म नहीं हुआ है।

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